शनि दशरथ स्तोत्र | Shani Dashrath Stotra: Read the Text and know about Importance in Sanskrit, Hindi & English

Dashrath krit shani stotra | दशरथ कृत शनि स्तोत्र | with lyrics | By aanjaney sharma anjul
शनि दशरथ स्तोत्र | Shani Dashrath Stotra: Read the Text and Importance in Sanskrit & English

शनि दशरथ स्तोत्र

शनि दशरथ स्तोत्र का महत्व और प्रभाव

‘शनि दशरथ स्तोत्र’ एक बहुत ही प्राचीन स्तोत्र है जिसे शनि मंत्रो व् स्तोत्रों में एक विशेष स्थान प्राप्त है। इसे शनि ग्रह के प्रभावों को शांत करने के लिए गाया जाता है। इस स्तोत्र की रचना भगवान् राम के पिता ‘अयोध्यानरेश महाराज दशरथ’ ने की थी। यह स्तोत्र विशेष रूप से तब गाया जाता है जब किसी व्यक्ति की कुंडली में शनि की दशा या साढ़ेसाती चल रही हो। शनि दशरथ स्तोत्र में विभिन्न श्लोक हैं जो शनिदेव की महिमा और उनके प्रभावों का वर्णन करते हैं। प्रत्येक श्लोक में शनि देवता के विभिन्न गुणों और उनकी शक्तियों का वर्णन किया गया है। इस स्तोत्र का पाठ विशेष रूप से शनिवार को किया जाना चाहिए, जो शनि ग्रह का दिन माना जाता है।

‘शनि दशरथ स्तोत्र’ को जपने का मुख्य उद्देश्य शनि ग्रह के नकारात्मक प्रभावों को कम करना और जीवन में सकारात्मकता लाना है। शनि को कर्म का ग्रह माना जाता है, और यह व्यक्ति के पिछले जन्मों के कर्मों के आधार पर फल देता है। यह स्तोत्र कर्मों को शुद्ध करने में मदद करता है, जिससे जीवन में सुधार हो सकता है। इसलिए, इस स्तोत्र का पाठ करने से शनि के दुष्प्रभावों से राहत मिलती है व् मन को शांति प्राप्त होती है।

॥ ॐ श्री गणेशाय नमः ॥

॥ नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च ।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ॥१॥

॥ नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ॥२॥

॥ नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्ण वै नम: ।
नमो दीर्घायशुष्काय कालदष्ट्र नमोऽस्तुते ॥३॥

॥ नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नम: ।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ॥४॥

॥ नमस्ते सर्वभक्षाय वलीमुखाय नमोऽस्तुते ।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करे भयदाय च ॥५॥

॥ अधोदृष्टे नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तुते ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निराणाय नमोऽस्तुते ॥६॥

॥ तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च ।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ॥७॥

॥ ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज सूनवे ।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ॥८॥

॥ देवासुरमनुष्याश्च सिद्धविद्याधरोरगा: ।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशंयान्ति समूलत: ॥९॥

॥ प्रसाद कुरु मे देव वाराहोऽहमुपागत ।
एवं स्तुतस्तद सौरिग्रहराजो महाबल: ॥१०॥

॥ इति ॥

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