वराहावतार: भगवान विष्णु की दिव्य लीला (Varaha Avatar: The Divine Play of Lord Vishnu)

वराहावतार: भगवान विष्णु की दिव्य लीला (Varaha Avatar: The Divine Play of Lord Vishnu)

वराहावतार: भगवान विष्णु की दिव्य लीला

वराहावतार, भगवान विष्णु के दस प्रमुख अवतारों में से एक, धरती को पापी प्राणियों के कष्ट से मुक्त करने के लिए लिया गया था। जब भी धरती पर अधर्म का बोलबाला होता है, तब भगवान विविध रूप धारण कर धरती के दु:खों का निवारण करते हैं। दैत्य हिरण्याक्ष द्वारा पृथ्वी को रसातल में छिपा दिए जाने के बाद, भगवान विष्णु ने वराह रूप में अवतार लिया और पृथ्वी का कल्याण किया।

जय और विजय: शाप और मोक्ष

सनकादिक ऋषियों द्वारा जय और विजय को दिया गया शाप और भगवान विष्णु की क्षमा, भक्ति और दिव्य प्रेम की अनूठी कहानी है। एक समय पर, चार सनकादि ऋषि – सनक, सनंदन, सनातन, और सनत्कुमार – वैराग्य की भावना से ओतप्रोत होकर भगवान विष्णु के दिव्य दर्शन की आशा में बैकुंठ पहुंचे। वहाँ, द्वारपाल जय और विजय ने उन्हें अंदर जाने से रोक दिया। ऋषियों ने अपनी दिव्यता का हवाला देते हुए प्रवेश की अनुमति मांगी, लेकिन द्वारपालों ने उन्हें रोके रखा। इस पर ऋषियों ने उन्हें शाप दिया कि वे पापयोनि में जन्म लें। जय और विजय के क्षमा मांगने पर, भगवान विष्णु स्वयं प्रकट हुए और ऋषियों से उनके द्वारपालों को क्षमा करने का आग्रह किया। ऋषियों के क्रोध का शमन हो गया, और उन्होंने जय और विजय को क्षमा कर दिया। भगवान विष्णु ने तब घोषित किया कि जय और विजय को तीन बार असुर योनि में जन्म लेना होगा, और हर बार उनका वध भगवान के हाथों होगा।

जय और विजय का पहला जन्म सतयुग में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में हुआ। वराहावतार में भगवान विष्णु ने हिरण्याक्ष का संहार किया और नरसिंह अवतार में हिरण्यकशिपु का। त्रेता युग में, वे रावण और कुंभकर्ण के रूप में जन्मे, जिनका संहार श्रीराम ने किया। अंत में, द्वापर युग में उनका जन्म शिशुपाल और दन्तवक्र के रूप में हुआ, जिनका संहार श्रीकृष्ण ने किया। इन तीन जन्मों के बाद, जय और विजय अपने पापों का प्रायश्चित कर वापस बैकुंठ लौट आए, जहाँ वे मूल रूप में भगवान विष्णु के पार्षद के रूप में पुनः स्थापित हुए। इस प्रकार, भगवान विष्णु की अनुकंपा और उनके भक्तों की अद्वितीय भक्ति की कथा सनातन धर्म में अमर हो गई।

हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु: दिव्य पुत्रों की कथा

कश्यप और दिति की कथा एक अन्य उल्लेखनीय घटना है। मरीचि के पुत्र कश्यप ने भगवान को खीर की आहुति देकर प्रसन्न किया और सन्ध्या में ध्यान में लीन हो गए। इसी समय, उनकी पत्नी दिति ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से उनसे अनुरोध किया। कश्यप ने समय का ध्यान रखते हुए संतानोत्पत्ति के लिए उचित समय का इंतजार करने को कहा। अधीर दिति ने कश्यप की बात न मानते हुए उनके साथ संबंध बनाया। कश्यप ने इसे दैवी इच्छा मानकर स्वीकार किया और बाद में दिति को वरदान दिया कि उनका नाती एक महान भगवद्भक्त होगा। दिति के इस कृत्य से हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु का जन्म हुआ, जिन्होंने लोकों में अत्याचार किया, लेकिन भगवान की इच्छा से उनके वंश में प्रहलाद और बलि जैसे महान व्यक्तित्व का भी जन्म हुआ।

वाराह अवतार और हिरण्याक्ष वध: धर्म की विजय

जय और विजय, भगवान विष्णु के द्वारपाल, दिव्य धाम बैकुंठ से पृथ्वी पर आ गिरे और दिति के गर्भ से जन्मे, जिन्हें महर्षि कश्यप ने हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नाम दिया। उनके जन्म के साथ ही संसार में विपदाएँ आरंभ हो गईं; धरती, आकाश, और स्वर्ग में हलचल मच गई, विपरीत घटनाएँ घटने लगीं। उनके जन्म से सूर्य और चंद्रमा पर अस्थिरता छा गई, बिजली कड़कने लगी, और जलाशय सूखने लगे। ये दोनों दैत्य किशोरावस्था में ही विशालकाय हो गए। उनका शरीर लोहे जैसा मजबूत और पहाड़ जैसा विशाल था, और वे सोने के आभूषणों से सजे थे।

हिरण्यकशिपु ने कठोर तपस्या करके ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे ऐसा वरदान प्राप्त किया कि उसकी मृत्यु न दिन में हो न रात में, न घर के भीतर हो न बाहर। जिससे वह लगभग अमर हो गया। उसके बाद उसने तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की। हिरण्याक्ष, अपने भाई की आज्ञा का पालन करते हुए, शत्रुओं का नाश करने निकल पड़ा। एक दिन हिरण्याक्ष वरुण देव की नगरी में पहुँचा और उनसे युद्ध की इच्छा जताई। वरुण देव ने कहा कि उन्हें युद्ध की इच्छा नहीं है और हिरण्याक्ष को विष्णु से युद्ध करने की सलाह दी। हिरण्याक्ष ने देवर्षि नारद से विष्णु का पता पूछा और उन्हें वाराह अवतार में पृथ्वी को उद्धार करते हुए पाया। उसने वाराह भगवान को ललकारा, परंतु वाराह भगवान ने उसे उपेक्षित किया और पृथ्वी को सुरक्षित स्थान पर रखा। जब हिरण्याक्ष ने उन्हें पुनः ललकारा, वाराह भगवान ने उनसे युद्ध किया और अंततः उसे पराजित किया। उनकी विजय पर सभी देवताओं ने उनकी स्तुति की। इस प्रकार, वाराह अवतार ने पृथ्वी को असुरों के आतंक से मुक्त किया और धर्म की स्थापना की।

अधिक जानकारी के लिए पुस्तकें

वराहावतार, जो भगवान विष्णु के तीसरे अवतार के रूप में जाना जाता है, हिंदू धर्मग्रंथों और पुराणों में वर्णित एक महत्वपूर्ण घटना है। इस अवतार में, विष्णु ने वराह (एक विशाल सूअर) का रूप धारण किया और पृथ्वी को डूबने से बचाया, जिसे दैत्य हिरण्याक्ष ने पाताल में खींच लिया था। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकें और ग्रंथ हैं जिनमें वराहावतार का वर्णन किया गया है:

  1. श्रीमद्भागवत पुराण (Srimad Bhagavatam): इस प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथ में भगवान विष्णु के वराहावतार का विस्तृत वर्णन है। यह उनके जन्म, उनकी दिव्य लीलाओं और हिरण्याक्ष के साथ उनके युद्ध का विवरण देता है।
  2. विष्णु पुराण (Vishnu Purana): विष्णु पुराण में भी वराहावतार की कथा का उल्लेख है। इसमें भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों के साथ-साथ वराहावतार के माध्यम से पृथ्वी की रक्षा की गाथा को बताया गया है।
  3. अग्नि पुराण (Agni Purana): अग्नि पुराण एक अन्य महत्वपूर्ण हिंदू धर्मग्रंथ है जिसमें वराहावतार की कथा का वर्णन है। यह ग्रंथ धर्म, विश्वास, तपस्या और विष्णु के अवतारों के महत्व पर चर्चा करता है।
  4. मत्स्य पुराण (Matsya Purana): मत्स्य पुराण में भी वराहावतार की कथा का विवरण मिलता है, जिसमें विष्णु द्वारा पृथ्वी को बचाने के लिए वराह रूप में अवतार लेने का वर्णन किया गया है।
  5. वराह पुराण (Varaha Purana): वराह पुराण, जैसा कि नाम से पता चलता है, विशेष रूप से वराहावतार के बारे में है। इसमें वराहावतार के माध्यम से पृथ्वी की रक्षा के विषय में विस्तार से बताया गया है।

ये पुस्तकें और ग्रंथ हिंदू धर्म के अनुयायियों और विद्वानों के लिए वराहावतार की कथा और उसके महत्व को समझने का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं।

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